Jan 12, 2011

खबरों के माध्यम पर लगा सूर्यग्रहण

4 जनवरी को तकरीबन सारा दिन कई न्यूज चैनल यही बताते-समझाते रहे कि आंशिक सूर्य ग्रहण पर क्या करें, क्या न करें। कब कौन सा मंत्र पढ़ें, क्या खाएं, क्या न खाएं, आज क्या पहनें, ग्रहण के दौरान और बाद में क्या-क्या उपाय करें। दिशाओं का बोध दिया गया और धर्म कर्म के हिसाब से लंबी विवेचनाएं की गईं।

ये कहानियां ऐसी रोचक-सरस और क्रमवार कर दी गईं, ग्रहण के दौरान स्नान के इतनी बार विजुअल दिखाए गए और कथित आस्थाओं के ऐसे कलश सजा दिए गए कि सचिन का अपने करियर का 51वां टेस्ट शतक पूरा करना भी टीवी चैनलों की इस बाबानुमा आपाधापी को रोक नहीं पाया। सचिन पर ब्रेकिंग न्यूज आई, फोनो, वीओ हुए और फिर ग्रहण की डुबकी लगने लगी। सचिन चैनलों पर ग्रहण के खत्म होने और बाबाओं की अपनी दुकान के समेटने के बाद ही चैनलों पर पूरी तरह से हावी हो सके।

इससे ठीक पहले नए साल की शुरूआत पर जब देश-दुनिया में गाजे-बाजे बज रहे थे और तमाम चैनल ठुमकने में लगे थे, तब भी न्यूज परोसने वाले चैनल मुफ्त में यह ज्ञान देने से खुद को रोक नहीं पा रहे थे कि इस साल के पहले दिन क्या करना शुभ या अशुभ होगा। किस राशि के लिए यह साल खुशियां बरसाएगा, किसके लिए मातम आने की आशंका है। फिर उपायों की झड़ी भी लगी कि क्या करने या न करने से दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। कौन से रत्न कैसा कायापलट कर सकते हैं और किन रंगों से जिंदगी की कहानी ही बदल सकती है।

यह एक अजीब कहानी है। जिन चैनलों को खबर देने के लिए 24 घंटे का बने रहने की अनुमति दी गई थी, वे कई बार विशुद्ध खबर कम और कर्मकांड ज्यादा बताते हैं। इस काम में वे जितनी ताकत लगाते हैं, उसे देख कर कई बार आह निकलती है कि काश इतनी ताकत चैनल अपने कंटेट को परिष्कृत करने में लगा देते या फिर इतना पैसा उन पत्रकारों के कल्याण में लगा देते जो चैनल के स्वभाव के अनुरूप खबर की तलाश में दिनभर खाक छानते फिरते हैं।

यहां एक बात बहुत खास है। यह सारा तामझाम इंसानी फितरत की उपज है। सारा मामला डर का है। सच बात तो यह है कि खबर जितना लुभाती, सुझाती, बताती, जतलाती है, ठीक उतना ही कई बार डराती भी है। धर्म का कथित धंधा भी इसी डर की जमीन पर टिका है। यह  बाहरी ठोस विश्वास की तलाश, आत्मविश्वास की कमी और डर के व्यापार पर टिका है। इसे गणित साबित नहीं कर सकता। यहां गणित का चुप रहना ही बेहतर है। लेकिन जिसके पास डर है, उसके लिए यह किसी संबल से कम नहीं। यही इसकी नींव है, इसका आधार है।

लेकिन एक बात भूलनी नहीं चाहिए। धर्म के इस भव्य, मोबाइल और स्मार्ट होते बाजार ने कई बार ऐसे शानदार नुस्खे दिए हैं जिसने व्यकितगत लाभ भले ही न दिए हों लेकिन मानव-पशु जाति का कुछ उद्धार जरूर किया है, साथ ही पर्यावरण का भी। गाय,काले कुत्ते या चिड़िया को रोटी खिलाना, किसी जरूरतमंद का पेट भरना, तुलसी के पौधे या पीपल के पेड़ को पानी देना यह सब यह सब उन पुरानी मान्यताओं की तरफ लोगों को मोड़ते हैं जो ग्लोबल दुनिया जाने कब की भूल गई होती।

इसमें एक बात और मजे की है। इन्हें देखने वाले लोग खुलकर कहते नहीं कि वे इन्हें देखते हैं या बाबाओं के फार्मूलों का अनुसरण करते हैं। वे इस बात को छिपा कर रखते हैं। यहां जैसे स्टेटस आड़े आ जाता है। जैसे लगता है कि यह आधुनिक बनती छवि को खा न ले। यही वे लोग जो न्यूज चैनलों की टीआरपी को उस वक्त बढ़ा देते हैं जब बाबाओं के प्रवचन चरम पर होते हैं।

पर इन सबके बीच यह बात जरूर सोचने की है कि क्या जरूरत से ज्यादा परोसे जाने वाला यह डर, विश्वास या अंधविश्वास न्यूज चैनलों के कर्तव्यों की परिधि में आता है। बाबा लोगों के पास धार्मिक चैनलों का प्लैटफार्म है ही और वे ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर वहां अपना तंबू तान कर दिन भर बैठते भी हैं। ऐसे में न्यूज चैनलों को क्या अपनी खुद की गढ़ी इस मजबूरी से बाहर आने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। कभी राजू का मसखरापन तो कभी राखी की नौटंकी दिखाते इन चैनलों को क्या अब न्यूजवाला बने रहने का पाठ दोबारा याद करने की जरूरत तो नहीं। क्या अब यह सोचने का वक्त नहीं है कि उन्हें अब वही करना चाहिए जिसके लिए भारत सरकार ने उन्हें लाइसेंस दे रखा है।

(यह लेख 9 जनवरी, 2011 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Jan 6, 2011

सबसे ताकतवर होता है........

मेरे सपने अपनी जमीन ढूंढ ही लेते हैं

बारिश की नमी

सूखे की तपी

रेतीले मन

और बाहरी थपेड़ों के बावजूद

 

खाली पेट होने पर भी

सपने मेरा साया नहीं छोड़ते

चांद के बादलों से लिपट जाने

सूरज के माथे पर बल आने

अपनों के गुस्साने

आवाज के भर्राने पर भी

ये सपने अपना पता-ठिकाना नहीं बदलते

 

सपनों की पंखुड़ी

किसी के भारी बूटों से कुचलती नहीं

हंटर से छिलती नहीं

बेरूखी से मिटती नहीं

 

सपनों का ओज

उदासी में घुलता नहीं

टूट कर बिखरता नहीं

अतीत की रौशनियों की याद में

पीला पड़ता नहीं

 

क्योंकि वे सपने ही क्या

गर वो छिटक जाएं

मौसमों के उड़नखटोलों से

क्या हो सकता है

इतना निजी, इतना मधुर, इतना प्यारा

सपनों की ओढ़नी

सपनों की बिछावन

सपनों की पाजेब

सपनों का घूंघट

सपनों की गगरी

 

काश!, कि तुम होते आज पास पाश

तो एक सुर में कहते

सबसे खतरनाक होता है

सपनों का मर जाना

और मैं कहती

सबसे ताकतवर होता है

सपनों का खिल-मिल जाना

हिम्मती हो जाना

फौलादी बन जाना

कवच हो जाना

हथेलियों की लकीरों को

आलिंगन में भर लेना कुछ इस तरह कि

सपने बस अपने ही हो जाएं

कि सपने

अपनों से भी ज्यादा अपने हो जाएं

 

हां, सबसे ताकतवर होता है

सपनों का खिल-मिल जाना


Jan 4, 2011

आह!

तलाश सब जगह की

लेकिन तुम मठ में मिले

नदी की धार में

गुफा की ओट में

हवा की सरकन में

ओस की बूंद में

हथेली में चुपके उस आंसू में

जो सिर्फ तुम्हारी वजह से ही ढलका था

 

फिर तलाश क्यों की

भीड़ में इतने साल

खुद भीड़ बन कर

 

अकेले होकर, अकेले बनकर, अकेलेपन में समाकर

कितने ही मानचित्र घुमड़ आते हैं अंदर

 

इतने गीले दिन, इतनी सूखी रातें, इतने श्मशान, इतने गट्ठर

अपने अंदर उठाकर चलने की वाकई जरूरत थी क्या

 

हिम्मत का न होना

न बांध पाना सब्र

संवाद का न बना पाना कोई पुल

दबे-दबे से कितने दबावों में

सबको खुश रखने की कोशिश

ख्वाहिशों को जीतने की जद्दोजहत

खींच ले गई है कितने ही साल

झुर्रियां पीछे छोड़कर

 

इतना सब होने पर भी पिलपिले होते कागज

उस फूल को अब तक सीने से लगाए धड़क क्यों रहे हैं

जो दशकों पहले के

किसी नर्म अहसास की पुलक थे

 

इतने साल जीकर भी

जीना सीखा कहां

कब्र पर पांव लटके

तो ख्याल आया

अरे, जाना भी तो था

 

लेकिन ये जाना भी कोई जाना हुआ

न नगाड़े बजे, न मन की मांग भरी

न पहना कभी खुशी का लहंगा

 

चलो, जाने से पहले क्यों न

जी लिया जाए एक बार, एक आखिरी शाम

Jan 2, 2011

नव वर्ष में

चलो एक कोशिश फिर से करें

घरौंदे को सजाने की

मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके

तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर

 

तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता

और ढूंढना अपना अक्स उसमें

 

मैं फिर से बनाउंगी वही दाल, वही भात

तुम ढूंढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम

 

मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूंगी

फंदों से बनाउंगी फिर एक कवच

तुम तलाशना उसमें मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव

 

आज की सुबह ये कैसे आई

इतनी खुशहाल

कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं

जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं

 

लेकिन रात का सन्नाटा

फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को

 

चलो, छोड़ो न

छोड़ो ये सब

चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर

फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें

चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को

सरकती हवा को

गुजरते पल को

 

चलो, एक कोशिश और करें

एक बार और   

Dec 27, 2010

भूलना, भूलना और फिर भूलना

कितना अच्छा होता है भूल जाना

वो रातें जब भरपेट खाना नहीं मिला था

सुबहें जो सर्दी के ठिठुरे कोहरे से दबी होकर भी

भागती थीं

चाय की भाप से मुलाकात किए बिना

 

दोपहरिया इसी चिंता में कि                                                    

शाम का पहिया

जाने आज किस दिशा में घूमेगा

 

अच्छा ही होता है भूल जाना

फरेब के वो सारे पल

जब पूरब को बताया गया था पश्चिम

जब मंदिर के बाहर छोड़े जूते

न मिलने पर वापिस

सोचा था

शायद यह थी ईश्वर की मर्जी

 

अच्छा ही होता है भूल जाना

कि इम्तिहान दर इम्तिहान

यात्रा कभी खत्म नहीं होगी

 

इतना सामान समेटा

यहां से वहां से

चार सोने के कंगन दो बूंदे, बीसों साड़ियां

इन सब पर तब भी भारी थी

मांग पर पड़ी लाल बारीक रेखा

 

अच्छा होता है भूल जाना

कि यायवरी, हैरानी, परेशानियों के बीच

मुस्कुराहटें भी आती हैं मेहमानों की तरह

 

कि शाम के चुप क्षणों में

सफेद होते बाल

यह कहने के लिए अक्सर होते हैं आतुर

कि नहीं हुई है उनकी उम्र अभी ढल-ढल जाने की

 

अच्छा ही होता है

यह भी भूल जाना कि

बात सिर्फ इतनी है कि

ये सांसों का ठेला ही तो है

क्या अपना, क्या पराया

क्या मेरा, क्या तुम्हारा

 

हां, जब तक गठरी है कांधे पे अपने

तब तक तो अच्छा ही है

भूले रहना

भूले-भूले रहना

Dec 21, 2010

आज

 सूरज के गोले बनाकर

चांदी के फंदे डाल दिए

रात भर में बना डाला ऐसा स्वेटर

कि सुबह हुई

तो सूरज शरमा गया

 

गमों को हीरे के गिलास में डाला

एक सांस में गटका

सांस ठंडी हुई

फिर सामान्य

 

हिम्मत है अंधेरे की

कि रास्ते के दीए बुझाए

हम तो दीए हथेली पे लिए चले हैं

ऊर्जा मन में है

दीए बहाना हैं

 

अहा

इससे बेहतर तस्वीर क्या होगी जिंदगी की

पूछो तो इस नन्हे शावक से

यहां मुस्कुराहटें खुद चली आती हैं

खुशी का सबक लेने

Dec 19, 2010

2010

 जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में

पठार होंगें

तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी

 

कहा है छोड़ जाए

आंसू की दो बूंदें भी

जो चिपकी रह गईं थीं

एक पुरानी बिंदी के छोर पर

 

कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास

वो सूखे हुए से

शादी की साड़ी के साथ पड़े

सूख कर भी भीगे से

 

वो पुराना फोन भी

जो बरसों बाद भी डायल करता है

सिर्फ तुम्हारा ही नंबर

 

हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं

कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी

 

इसके बाद जाना जब तुम

तो आना मत याद

न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए

 

कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच

सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए

नाकाफी होता है

कोई भी साल

Dec 13, 2010

संवेदना के धागों से बुनी एक खबर

एक अकेला भारत ही संवेदनशील है, भावनाओं के समुंद्र में बहता है और वह उफान में रोज गहराता है, ऐसा नहीं है। कार्ला ब्रूनी जब फतेहपुर सीकरी जाती हैं तो अपनी दूसरी शादी और पहले से एक बच्चे की मां होने के बावजूद यह जानकर भावुक हो उठती हैं कि यहां मुराद मांगने से झोली जरूर भरती है। हाथ में चादर लिए वे माथा टेक कर कई मिनट लगातार सरकोजी के जरिए एक बच्चे की मुराद मांगती चली जाती हैं और जब चादर चढ़ा कर बाहर आती हैं तो उनके चेहरे पर नारी सुलभ संकोच और सौम्यता टपकती दिखती है। इलेक्ट्रानिक मीडिया इसी संकोच पर खबर दर खबर गढ़ता चला जाता है। कुछ जगह आधे घंटे के प्रोग्राम बना दिए जाते हैं। कार्ला और सरकोजी कव्वाली की धुन के बीच उस सलीम चिश्ती के रंग में सराबोर दिखते हैं जिसने बादशाह अकबर को भी खाली हाथ नहीं भेजा था। कार्ला बार-बार नमस्ते की मुद्रा में दिखाई देती हैं, कैमरों के सामने उनकी मुस्कुराहट और भी खिल कर सामने आती है। वे भाव विभोर हैं। कैमरे, संगीत का प्रभाव और दमदार एडिटिंग ऐसे माहौल को निर्मित कर देते हैं जहां दुनिया के एक प्रभावशाली देश का शासक भी महज एक याचक की तरह दिखाई देता है।

 

बाद में कार्ला उस वादे को दोहराते दिखती हैं कि अगली बार वे भारत प्रवास इतना छोटा नहीं बनाएंगीं बल्कि कुछ हफ्तों के लिए यहां रूकना चाहेंगीं। भारत ने उन्हें खींच लिया है। एड्स पीड़ितों से मिलते समय कार्ला ब्रूनी में यही नारीत्व झलकता है। वे एड्स से पीड़ित गर्भवती महिलाओं को दिलासा और हौसला देती हैं कि उनके बच्चे पूरी तरह से स्वस्थ होंगे। कार्ला की बातचीत, उनकी चाल और उनके चेहरे के भावों में ममत्व उमड़ता दिखता है। वे भारत में आकर मुग्ध हैं, शब्दहीन हैं और सरोकारों से भरपूर हैं।

 

इस सबका प्रभाव यह होता है कि जो रिपोर्टिंग महज दिमागी या फिर सिर्फ राजनीतिक रंग में रंगी होनी चाहिए थी, वह मानवीय सरोकारों में बुनी जाने लगती है।

 

यह मीडिया का एक नया युग है। यहां चौबीसों घंटे राजनीति नहीं परोसी जा सकती। किसी राजनियक, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या सेलिब्रिटी की यात्रा के ऊबाऊ भाषण जनता को ज्यादा खींच नहीं सकता। यह रिपोर्टिंग का मानवीयकरण है। यहां खबर को संवदनाओं के धागे में ऐसा बुना जाता है कि सारे समीकरण ही बदले नजर आने लगते हैं। वे ऐसा बदलते हैं कि यात्रा का अंत आते-आते राष्ट्रपति ओबामा पर मिशेल भारी पड़ जाती हैं। काटेज इंपोरियम में एक माला पहनतीं या मुंबई में एक बच्ची से यह कहतीं मिशेल कि मेरे पति से जरा मुश्किल सवाल पूछो, नारीत्व के ग्लोबल परिदृश्य को साबित करती हैं। वे कह देती हैं कि भाई घर पर तो मेरी ही चलती है। यहां की बॉस मैं ही हूं। यहां कार्ला भी अपने पति सरकोजी पर साफ तौर पर हावी दिखती हैं। लगता है कि जैसे सरकोजी उनके पीछे कदमताल कर रहे हैं। कार्ला सर्वेसर्वा हैं। पति की बागडोर अपने हाथों में लिए हुए उनकी अदा निराली हो उठती है। यहां तक कि रिपोर्टिंग में भी वे ही छाई दिखने लगी हैं। उनका साथ इस यात्रा में रस भरने और भारत के साथ संबंध को पक्का बनाने का काम कर रहा है अन्यथा इस यात्रा के बोझिल दिखने की आशंका बन सकती थी।

 

शायद इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कूटनीतिक यात्राओं में पत्नी का साथ कई मायने रखता है और वह जरूरी भी है। ऐसा नहीं है कि दांपत्य भारतीय संदर्भ में ही बुनियादी जरूरत सा है बल्कि तमाम आधुनिकताओं के बावजूद पश्चिम भी इसकी जरूरत को महसूस करने लगा है। दरअसल यह वाक्यों के बीच में पढ़ने जैसा ही है। सफल दांपत्य बाहरी जिंदगी में भी पौधों को सींचने का काम करता है। यह बात अलग है कि दुनिया के कई नेताओं को ऐसा सौभाग्य मिल नहीं सका। अटल बिहारी वाजपेयी उन्हीं गिने-चुने नेताओं में से एक हैं। एक अदद पत्नी की मौजूदगी भर बोझिल होते माहौल में ताजगी ला सकती है और झुर्रियों से भरते देशों के आपसी रिश्तों में कसाव ला सकती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ज्यादातर विदेशी यात्राओं में जब अपनी पत्नी गुरशरण कौर के साथ नजर आते हैं तो उसके कई मजबूत संदेश जाते हैं। इस पर एक मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण किया जाए तो हो सकता है कि कई दिलचस्प तथ्य सामने आएं।

 

बहरहाल, कार्ला और सरकोजी ने वादा किया है कि इस शादी से बच्चा होने पर वे सलीम चिश्ती की दरगाह में फिर से लौटेंगे। भारत और भारतीयों को इस वादे के पूरे होने का इंतजार रहेगा। तब शायद  मीडिया 2010 की इस फुटेज को नए सिरे से जोड़कर संवेदना की कोई नई पराकाष्ठा ही गढ़ दे।

 

(यह लेख 13 दिसंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Dec 2, 2010

दिखा क्या ?

जो दिखता है वो होता नहीं

जो होता है, वो होता है और कहीं

परियों की कहानियों

यादों के संदूकों में बंद

कहीं छिपा

 

शहर ही की तरह होता है दिल

बड़ा भी, उतना ही कभी तंगदिल भी

 

मकबरे की तरह शिथिल भी

उत्सव की तरह खिल-खिल भी

 

किताब में जिस पत्ते को 1980 में सहेज रख छोड़ा था

उस दिन की याद में

वैसा ही गुमसुम भी

 

झुरझुरी की तरह निजी भी

उस बाल की तरह जिसकी सफेदी

अभी कालेपन के नीचे दबी है

पर वो भी है एक सच

 

चलो, इस सड़क को जरा खींच लिया जाए

बना दिया जाए यहां एक बांध

खोल दिया जाए तितलियों से भरा एक झोला

इत्र की बोतलों की कई सुरमई खुशियां

 

बस, बात सिर्फ इतनी थी

खुशबुओं की तैराई समझने के लिए

मूंदो तो पलकें पल भर को

रोको सांसें

जिंदगी खुद ही सरक आएगी

आंचल के छोर में बंधने

Nov 25, 2010

गोवा की शादी

दिल्ली से गोवा की फ्लाइट के चलने में अभी कुछ समय बाकी है। तभी एक नजारा मिलता है। पहले दो  कर्मचारीनुमा लोग दो अलग-अलग सूट थामे हुए सावधानी से चलते हुए, फिर करीब 30 लोगों का एक परिवार जैसा एक काफिला और उनके एक कोने में ठसक के साथ चलते हुए दो पंडित। पंडितों को देखते ही मामला समझ में आ जाता है। यह लड़के की बारात है।

 

फ्लाइट चलती है। बाराती रास्ते भर कुछ नहीं खाते(क्योंकि कुछ फ्लाइटों में खाने का पैसे खर्च होते हैं) हां, खुसफुसाहट जरूर कानों में पड़ती है कि वहां का इतजाम कैसा शानदार होगा।

 

गोवा आते ही कारवां खुशी से बाहर आता है। बेहद सावधानी से दूल्हे के कपड़े उठाए उन दोनों कर्मचारियों से मैं पूछती हूं क्यों भइया, इतने ध्यान से क्या उठाए हुए है। वे शर्मा कर कहते हैं (गोया यह शादी उन्हीं की हो) कि ये भइया जी के कपड़े हैं, उनकी शादी है। मेरा मन अभी भरा नहीं है। अबकी मैं पूछ बैठती हूं, भइया कपड़े बहुत महंगे हैं क्या। उनमें से एक शर्मा कर फिर से कहता है हां, बहुत महंगे हैं।

 

खैर,एयरपोर्ट पर बारातियों का भव्य स्वागत होता है। बताया जाता है कि उनके लिए गोवा के एक शानदार होटल में चार दिन और तीन रात ठहरने का इंतजाम किया गया है। जाहिर है खर्चा लड़की वालों का ही है। एक बाराती कहता है कि इंतजाम तो खास होना ही है जी। इतना तो बनता ही है। बाराती एक विशालकाय बस में जाते हैं। प्रस्तावित दूलहा अपने दोस्ते के साथ एक बड़ी कार में। एक-एक पल की वीडियो रिकार्डिंग होती है। लड़के के बैठने, हाथ हिलाने, हंसने सभी की।

 

यह कारपोरेट शादी है। यहां सब कुछ पैकेज में मिलता है। हवाई यात्रा, ठहरना, खाना-पीना, घूमना, लौटते में सोने के सिक्के पाना यह सब पैकेज का हिस्सा है। मैनें तो शादी से पहले के आयोजन की एक झलक भर ही देखी, शादी में जाने क्या हुआ होगा। लाजपतनगर के एक दुकानदार की बेटे की शादी के लिए जब यह पैकेज देखा तो सोचना पड़ा कि आजकल नेताओं, सरकारी अफसरों, बड़े व्यापारियों के बेटों के लिए जाने कैसे पैकेज होते होंगा। क्या हम वाकई तरक्की कर रहे हैं? वैसे सीबीआई है कहां और कहां है इंकम टैक्स विभाग? क्या यह विभाग उन्हीं लोगों को डराने के लिए हैं जिनके पास इंकम कम और डर ज्यादा है?

Nov 18, 2010

आखिर कहां है कला के लिए जगह

10 दिनों तक कवरेज कामनवेल्थ गेम्स के आस-पास घूमती रही। एतराज इस पर नहीं है। पर इस बात पर एतराज करने का हक तो बनता ही है कि इस कवरेज में मीडिया, खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया इस कदर लोटपोट रहा कि दिल्ली में हो रहे बहुत से  दूसरे जरूरी उत्सव उसने तकरीबन नजरअंदाज ही कर दिए। खेल महाउत्सव तो थे लेकिन उसके साए में लगा कि जैसे कवरेज का संसार भी सीमित हो गया। संगीत नाटक अकादेमी का देशपर्व इसका सटीक उदाहरण है। 10 दिन तक चले इस उत्सव को 5 हिस्सों में बांटा गया। कुलवर्णिका, नृत्य रूपा, देसज, नाट्य दर्शन और संगीत मार्ग। सभी का मकसद कलाकारों को राष्ट्रीय मंच मुहैया कराना और उन्हें प्रोत्साहित करना था। 10 दिनों तक चले इस उत्सव में करीब 1500 कलाकारों ने कला की कई ऐसी विधाएं ऐसे अद्भुत ढंग से प्रस्तुत कीं कि कई बार दर्शक खुशी के चरम को महसूस करते दिखे। संगीत, नृत्य और नाटक की भारत की इस राष्ट्रीय अकादेमी की स्थापना1952 में हुई थी और तब से यह भारत के सांस्कृतिक कलेवर में रंग भर रहा है।     

 

इसी तरह दिल्ली की साहित्य अकादमी ने कामनवेल्थ गेम्स देखते हुए दो दिवसीय राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। मीडिया यहां भी तकरीबन नदारद दिखा। इंडिया इंटरनेशनल और हैबिटैट सेंटर दो हफ्तों में कई किताबों के विमोचन करने में व्यस्त रहे लेकिन वहां भी कवरेज का हाल तकरीबन यही रहा। हां, श्री राम कला केंद्र की हर साल होने वाली रामलीला को ठीक-ठाक कवरेज जरूर नसीब हुआ।

 

दरअसल कवरेज का ताल्लुक सीधे इस बात से होता है कि उसकी कवरेज की अनुमति देने वाले का खुद का रूझान किसमें है और कवरेज के लिए कही जा रही घटना में टीआरपी बटोरने की कितनी ताकत है। आम तौर पर कवरेज का नियंत्रण अपने हाथ में रखने वाले आका कलाकार नहीं, पत्रकार ही होते हैं, इसलिए यहां खबर का पलड़ा भारी पड़ता है। लेकिन अगर आका के चाहने पर कवरेज हो जाए तो उस कवरेज को चलाने का अधिकार आउटपुट वाले के पास होता है जो इन्हीं मापदंडों के हिसाब से चयन करता  है। नतीजतन कला और कलाकार के बड़ी खबर बनने के आसार आम तौर पर पस्त ही होते हैं, बशर्ते उस दिन राजनीतिक, खेल या दूसरे बड़े हलकों से बड़ी खबर की पैदावर न हुई हो। दूसरे, यह भी कि कला की बीट को कवर करने वाले कई बार ऐसी हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं कि कांग्रेस या भाजपा कवर कर रहे रिपोर्टर की अदनी सी खबर के आगे अपनी स्टोरी को जगह दिलाने के लिए पूरी तरह जिरह नहीं कर पाते।

 

तो क्या इसका मतलब यह माना जाए कि नया थियेटर की नगीन तनवीर को तभी जाना जाएगा जब वे पीपली लाइव में चोला माटी के राम गाएंगी और लोग उस आवाज को बड़े परदे पर सुनेंगे। तब तक 30 साल की यात्रा के सहभागी सिर्फ वो मुट्ठी भर लोग होंगें जो साल दर साल ऐसे कलाकारों को मंच पर देख कर हैरानी और खुशी के भाव से बाहर आया करेगें। तो क्या कला की दुनिया को कवरेज के लिए किसी ऐसे फीके दिन का इंतजार करना होगा जिस दिन कोई न्यूज ब्रेक न हो और खबर का बाजार मंदा पड़ा हो।

 

इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सांस्कृतिक बाजार को लेकर प्रिंट और उससे भी ज्यादा वेबमीडिया में काफी सरोकार दिखाई देता है।गेम्स को लेकर लगातार बनी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के बीच भी वेब मीडियाकाफी हद तक अपने संतुलन को बनाए रखने में कायम रहा है। ब्लागरों की नई उपजी फौज चहुंमुखी कवरेज में भरपूर मुस्तैद दिखती रही। हां, उनकी तुलना टीवी या प्रिंट से करना सही नहीं क्योंकि वहां पैसे की ऐसी बंदिश होती नहीं, इसलिए वो आजादी लुभावनी भी लगती है।   

 

असल में हर माध्यम की अपनी उपयोगिता और अपनी सीमाएं हैं। इसलिए समुचित कवरेज न पाने वालों को भी नए सिरे से इस बात का अवलोकन करना चाहिए कि कौन से ऐसे माध्यम ईजाद किए जाएं जिनके जरिए सूचना का संप्रेषण सटीक, तुरंत और ज्यादा कारगर हो। कला का क्षेत्र प्रयोगधर्मिता का क्षेत्र है। जब मंच के हर कोण में प्रयोगधर्मिता के नए फार्मूले ईजाद किए जा सकते हैं तो फिर कवरेज को लेकर क्या परहेज।

 

(यह लेख 24 अक्तूबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Nov 3, 2010

गुल्लक

हवा रोज जैसी ही थी

लेकिन उस रोज हुआ कुछ यूं

कि हथेली फैला दी और कर दी झटके से बंद

हवा के चंद अंश आएं होंगे शायद हथेली में

गुदगुदाए

फिर हो गए उड़नछू वहीं, जहां से आए थे

 

फूल भी क्यारी में रोज की तरह ही थे

लेकिन उस रोज जाने क्यों

एक पत्ते को उंगलियों में लिया

किताब की गोद में सुला दिया

लिख दिया उस पर तारीख, महीना, साल

पत्ता इतिहास हुआ पर दे गया कोई सुकून

कि जैसे

इतिहास को बांध लिया हो किताब की कब्र में

 

पल भी कई बार ऐसे ही समेटे कई बार

याद है शादी का वो अलबम

पहली किलकारी की तस्वीरें

होश में आते दिनों के ठुमकते दिन

 

मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा

सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में

बाहर बैठे

कैसे बातें लिपटती गईं थीं

इतिहास की तह में जाकर भी

वो दोपहरें आबाद थीं

 

जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता

Oct 31, 2010

रियासत

इससे बेहतर                   

बल्कि बेहतरीन और कैसा बचपन होता

बचपन को सलीकेदार, हवादार, खुशबूदार बनाने के लिए

मन की फौज को रखना चाक-चौबंद

याद रखना

दोहराना

अपनी जिंदगी की राजा या रानी मैं खुद हूं

बड़ी सी प्रजा भी खुद ही

यहां सपने मेरे अपने बड़े से खेत में उगेंगे

उनकी सिंचाई का बंदोबस्त भी मेरे हाथ में

मर्जी होगी मेरी

कि कित्ते तारे देखना चाहूं आसमान की स्लेट पर

किसे लिखूं खत

बताऊं

पिट्ठूगरम में कितनी बार जीती इस हफ्ते

अपनी गुड़िया के लिए मलमली गद्दे

अपने लिए गुलाबी फ्राक

बहन के लिए पिचकारी

सब मेरी फूलों की क्यारी से ही सरक कर आएंगे बाहर

बागडोर मेरे हाथ में

अपनी जिंदगी की, थिरकन की, मचलन की

रियासतें रियासतों से नहीं बनतीं

जहन में उकरते हैं उनके नक्शे

उसके तमाम चौबारे अंदर ही

फव्वारे भी

अंदर की रियासत बनाने वाले

सुख बोते हैं, सुख काटते हैं, सुख पाते हैं

Oct 29, 2010

पाकिस्तान, आतंकवाद और सूचना मंत्रालय

1980 के आस-पास के सालों में पंजाब के छोटे-से शहर फिरोजपुर में रहते हुए एक छवि जो मन में बसी, वो आज भी कायम है। वो छवि थी चुस्त-दुरूस्त पीटीवी यानी पाकिस्तान टीवी की। पीटीवी पंजाब में बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन से भी ज्यादा। मनोरंजन के नाम पर पाकिस्तान टीवी पर भरपूर सामान रहता था लेकिन इसी के साथ जो चौंकाता था,वो था पीटीवी पर भारतविरोधी बयानबाजी। पीटीवी के समाचारों के बड़ा हिस्सा भारत के ही नाम रहता और वो एकतरफा भड़काऊ पक्ष बड़ी महारत से रखता। दूसरी तरफ भारतीय दूरदर्शन के शाम के क्षेत्रीय समाचार और रात के राष्ट्रीय समाचार संतुलित पक्ष तो देते लेकिन बेहद थके और ऊबाऊ लगते।

 

इस बात पर इतनी हैरानी नहीं होती जितनी इस पर होती है कि पिछले 30सालों से भारत का सूचना प्रसारण मंत्रालय आज भी इस भारत विरोधी मुहिम से बचने का कोई कारगर तरीका खोज नहीं पाया है।

 

ताजा खबर के मुताबिक मंत्रालय अब फिर सक्रिय हो उठा है। मंत्रालय को आभास है कि पड़ोसी देशों की सीमा से सटे इलाकों और नक्सल प्रभावित राज्यों में प्रसारण दे रहे दूरदर्शन और आकाशवाणी को आतंकवादी और माओवादी लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं। इनसे निपटने के लिए अब केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय एक रणनीति तैयार कर रहा है। देश भर से मिली रिपोर्टों के आधार पर मंत्रालय अब इस सच को स्वीकार कर चुका है कि सीमापार से आतंकवाद झेल रहे जम्मू कश्मीर सहित पंजाब, अरूणाचल प्रदेश, मघालय, असम और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के संवेदनशील जिलों में मंत्रालय को अब अतिरिक्त मुस्तैदी दिखानी होगी। इसके लिए दो स्तरों पर तैयारी की जा रही है। पहली एक विस्तृत रणनीति बनाते हुए दूरदर्शन और आकाशवाणी के एफएम रेडियो को नए सिरे से तैयारी करते हुए रौडमैप बनाने का काम सौंप दिया गया है। दूसरे, टीवी और रेडियो सिग्नल के माध्यम से प्रसारित हो रहे देश विरोधी अभियान को ब्लॉक करने की कारर्वाई पर गंभीर चिंतन किया जा रहा है। मंत्रालय अवगत है कि पीटीवी और पाक रेडियो के जरिए सीमावर्ती इलाकों में भारत विरोधी कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। लेकिन चिंता सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। सरकार के गले का फांस बने हुए नक्सली भी अब सूचना तकनीक में माहिर होने लगे हैं। नतीजतन वे अपने रेडियो स्टेशनों के जरिए पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित जिलों में अपनी मर्जी के मुताबिक कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इससे निपटने के लिए मंत्रालय ने हाई पावर ट्रासमीटर लगाने की पहल कर दी है।

 

इसी कड़ी में नौशेरा, श्रीनगर, सोपोर, जम्मू लेह, राजौरी में भी ट्रांसमीटर लगाने का काम शुरू हो गया है। अरूणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के कुछ जिलों में भी दस वॉट की क्षमता वाले ट्रांसमीटर लगाए जाएंगें। इनसे दूरदर्शन और आकाशवाणी के सिग्नल पहले से बेहतर होगें ही, साथ ही विरोधी तत्वों के लिए इन्हें क्षीण करना असंभव होगा।

 

लेकिन इन कदमों से ज्यादा अकलमंदी मंत्रालय के इस कदम में दिखाई देती है कि अब नक्सलग्रस्त इलाकों में कम्युनिटी रेडियो के पनपने का बेहतर माहौल बनाया जाएगा। इन राज्यों में इस साल के अंत तक 100 से ज्यादा ब्रॉडकास्टिंग टावर स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है। भारतीय ब्रॉडकास्टिंग को ज्यादा लोकप्रिय बनाने के लिए ही जम्मू कश्मीर और उत्तर पूर्वी राज्यों में डीडी की डीटीएच सेवा को घर-घर पहुंचाने के लिए मुफ्त में सेट टॉप बॉक्स भी बांटे जा रहे हैं।

 

लेकिन असल मुद्दा दूरदर्शन-आकाशवाणी को लोगों तक पहुंचाना और विरोधियों के प्रसारण को रोकने भर से हल होने वाला नहीं है। मंत्रालय को अब यह समझ लेना होगा कि लोग सरकारी चैनल को तब ही देखेंगें जब उनमें चुस्ती,फुर्ती और बदलते समय के साथ चलने का दम-खम होगा। इतने सालों से सरकारी चैनल सत्तारूढ़ सरकार की प्यारी गुल्लक की तरह ही देखे जाते रहे हैं और मामला यहीं आकर पस्त पड़ जाता है।   

  

(यह लेख 25 अक्तूबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Oct 15, 2010

आह ओढ़नी

ओढ़नी में रंग थे,रस थे, बहक थी

ओढ़नी सरकी

जिस्म को छूती

जिस्म को लगा कोई अपना छूकर पार गया है

 

ओढ़नी का राग, वाद्य, संस्कार, अनुराग

सब युवती का श्रृंगार

 

ओढ़नी की लचक सहलाती सी

भरती भ्रमों पर भ्रम

देती युवती को अपरिमित संसार।

 

दोनों का मौन

आने वाले मौसम

जाते झूलों के बीच का पुल है।

                        

ओढ़नी दुनिया से आगे की किताब है

कौन पढ़े इसकी इबारत

ओढ़नी की रौशनाई

उसकी चुप्पी में छुपी शहनाई

उसकी सच्चाई

युवती के बचे चंद दिनों की

हौले से की भरपाई

ओढ़नी की सरकन युवती ही समझती है

उसकी सरहदें, उसके इशारे

पर ओढ़नी का भ्रम टूटने में भला कहां लगती है कोई देरी

 

Oct 11, 2010

माटी के चोले में तनवीर की विरासत

एक लोकगायिका, एक अदाकारा और बड़ी गहरी विरासत।  लेकिन असल जिम्मेदारी इससे भी कहीं बड़ी। कंधों पर नया थियेटर का काम और हर शो के बाद दर्शकों की खड़े होकर तालियों की भरपूर गूंज के साथ और बेहतर होते जाने की चुनौती। बेहतर होते जाने की यही बेचैनी नगीन तनवीर को सबसे अलग करती है। दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी के आयोजित देश पर्व में चरनदास चोर के मंचन के बाद नगीन से विस्तार से बात करने का मौका मिला।

पहली बार चरणदास चोर में उन्होंने जब अपना कौशल दिखाया, तब साल था 1975 और उनकी उम्र थी 10 साल। आज तक वे इस शो के 1000 से ज्यादा रिहर्सल कर चुकी हैं। इसके बावजूद हर मंचन के दौरान वे एक नई ऊर्जा के साथ मंच पर कदम रखती हैं। लेकिन इसके साथ ही महसूस करती हैं कि कुछ ही सालों में थियेटर परिपक्व हुआ है। हर बार नाटक एक नया मजा देते हैं, हर बार नए मुहावरे गढ़े जाते हैं। जैसे कि इस बार चरनदास चोर में कामन वैल्थ गेम्स पर एक जगह टिप्पणी शामिल की गई और एक जगह पेप्सी कोक संस्कृति पर और इस पर लोग खूब गुदगुदाए।

वे कहती हैं कि दर्शक को सामने बैठ कर नाटक को देखना जितना लुभाता है, उन्हें उतना ही लुभाता है कलाकारों का अनुशासन और संयम। मंच पर आने से पहले सभी कलाकार पूरी तरह अपने में चरित्र में खोए रहते हैं, जरा भी बात तक नहीं होती। तन्मयता का यह माहौल सबमें ताकत भरता है।  

समय के साथ नगीन ने नाटक के तमाम पहलुओं में बदलाव होते देखे। यहां तक की कपड़े और जेवर भी बदलते गए। चरणदास चोर में रानी बनने वाली फिदा बाई पहले जो साड़ी पहनती थीं, वो सूती साड़ी छत्तीसगढ़ की हैंडलूम की होती थी। अब वो साड़ी बनती ही नहीं है। अब रानी गोल्डन साड़ी पहनती है और गोल्ड के ही गहने पहनती हैं।

नगीन बार-बार वो समय याद करती हैं जब उनके पिता हबीब तनवीर 1950 में मुंबई से दिल्ली आए और अपने साथ 6 कलाकार लाए। अपनी पत्नी की मदद से कनाट प्लेस के गैराज में नाट्य यात्रा की नीव डाली लेकिन नगीन को अखरता है कि लग बार-बार पिता का नाम लेते हुए यह भूल जाते हैं कि उनकी मां मोनिका मिश्रा नया थियेटर की जान थीं। हबीब पहले शख्स थे जो कि गांव वालों के साथ थिएटर में उतरे और उन्हें अपने हर कलाकार पर पक्का विश्वास था।

पीपली लाइव में चोला माटी के राम की जोरदार कामयाबी के बाद अब वे नाटकों से दूर रहने वाले आम दर्शकों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं। वे फिल्म के निर्देशकों अनूशा और महमूद रिज़वी को आभार देते हुए यह भी मानती हैं कि मुंबई से से बुलावा काफी देर से आया। अब अगर अनूशा-महमूद की तरह और भी निर्देशकों को थियेटर की गूंज लुभाती है तो वे उनसे जुड़ने में एतराज नहीं करेंगी।

नगीन अब अपने सपनों पर काम करने में जुटी हैं। इस समय एक तरफ जगदीश चंद्र माथुर के नाटक कोणार्क और मन्ना भावे साठे के नाटक खामोश जुलूस पर काम चल रहा है तो दूसरी तरफ वे अपने पिता की शायरी, उनकी लिखी स्क्रिप्ट और नाटक सजो कर एक किताब का रूप देने में भी लगी हैं। परिवारवाद में न तो कभी उनके पिता का विश्वास था, न उनका है। वे पिता की विरासत को एक साथ सजोने के बाद पूरी तरह से गायकी में उतर जाना चाहती हैं।

(9 अक्तूबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित) 

Oct 10, 2010

अदालत का न्याय और मीडिया की सीमाएं

यह त्रासदी ही है कि एक लड़की के बलात्कार और हत्या के आरोपी की सजा इस बिना पर कम कर दी जाए कि वह शादीशुदा है और एक लड़की का बाप भी। अभी कुछ साल पहले की दलील कुछ ऐसी थी कि युवक एक आईपीएस अफसर का बेटा है और साथ ही भावी वकील भी।

 

यह युवक संतोष कुमार सिंह है जिस पर 14 साल पहले कानून की विद्यार्थी प्रियदर्शिनी मट्टू के बलात्कार और हत्या का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को सुनते हुए 3 दिसंबर, 1999 की दोपहर याद आ गई जब एडिशनल सेशन जज जी पी थरेजा ने 499 पेज के अपने फैसले में कहा था- हालांकि मैं जानता हूं कि संतोष ने ही इस अपराध को अंजाम दिया है लेकिन मैं उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी करता हूं। ऐसा लगता है कि कानून उन लोगों के बच्चों पर लागू नहीं होते जिन पर खुद कानून को लागू करने की जिम्मेदारी होती है। अपने फैसले में थरेजा ने माना था कि दिल्ली पुलिस ने जांच के दौरान संतोष को मदद दी। मामले में इंस्पेक्टर ललित मोहन ने झूठे सबूत गढ़ने और अभियुक्त के बचाव का माहौल तैयार करने में भूमिका निभाई। बाद में सीबीआई के हाथों जांच की कमान आने पर भी डीएनए के साथ छेड़छाड़ दिखाई दी। इसलिए यह जांच भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 मददगार साबित नहीं हो सकी। यहां तक कि प्रियदर्शिनी के नौकर और महत्वपूर्ण गवाह को ढूंढा नहीं जा सका। (यह बात अलग है कि प्रिंट का एक जुझारू पत्रकार इस नौकर को बिहार के एक गांव में ढूंढ निकालता है और उसका पक्ष छाप भी देता है) कुल मिलाकर यह मामला पुलिस और जांच एजेंसियों की सांठगांठ और लापरवाही का नमूना साबित हुआ। उंगलियों के निशान, हेलमेट के रखाव और अंदरूनी कपड़ों तक के मामले में जो उदासीनता बरती गई, उसने इस मामले को कमजोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायण ने इस मामले की दुर्भाग्यपूर्ण हालत देखते हुए कहा था कि न्याय के रक्षा मंदिर अब केसिनो में तब्दील हो गए हैं।  

 

थरेजा की टिप्पणियों ने दिल्ली पुलिस के बेहद पक्षपातपूर्ण रवैये की धज्जियां उड़ा दी थीं। शरीर पर 19 जख्मों के निशान लिए प्रियदर्शिनी की जांच करने में पुलिस ने न सिर्फ कोताही बरती थी बल्कि पूरी लीपापोती भी थी की क्योंकि उस समय संतोष के पिता पुलिस महानिरीक्षक थे।

 

खैर, 1999 की उस दोपहर संतोष तकरीबन हंसते हुए पटियाला हाउस कोर्ट से बाहर निकला था। उसकी खुशी और फुर्ती देखने लायक थी। उस दिन मीडिया के लिए उसकी एक तस्वीर को कैद करना बड़ा मुश्किल साबित हुआ था और उसकी हंसी देख कर किसी भी कैमरामैन के लिए विश्वास करना आसान नहीं था कि यही वह अभियुक्त है जिस पर धारा 302 और 376 कोई असर नहीं छोड़ सकी। वैसी ही हंसी जिसने रूचिका ममाले में आला पुलिस अधिकारी राठौर को जेल भिजवा दिया था।

 

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। केस आगे बढ़ता गया। प्रियदर्शिनी का परिवार हमेशा के लिए दिल्ली छोड़ कर जम्मू जा बसा था लेकिन वे न्याय पाने के लिए सक्रिय रहे। प्रियदर्शिनी के दोस्तों ने जस्टिस फार प्रियदर्शिनी की मुहिम चलाई और इंडिया गेट पर जाने कितनी मोमबत्तियां जलाकर सोते हुए समाज और न्यायिक व्यवस्था को झकझोरने की कोशिश की। जेसिका लाल और नीतिश कटारा मामले की तरह प्रियदर्शिनी की हत्या को भी जनता और मीडिया ने बराबर जिंदा रखा। इन दोनों ने ही न्यायालिका को कुछ भी भूलने नहीं दिया।

 

लेकिन जनता और मीडिया की एक आदत थोड़े से न्याय के बाद थक जाने की भी होती है। ताजा फैसले के तहत संतोष के बीवी-बेटी की दुहाई दी गई है। लगता है अब एक बार फिर जनता और मीडिया का काम शुरू होता है। क्या परिवार नामक संस्था से जुड़ जाने से अपराध कम हो जाता है और अपराधी अतिरिक्त संवेदना का पात्र बन जाता है, वह भी ऐसी स्थिति में जब कि अपराधी अब भी अपने अपराध को कबूल करने को राजी नहीं।

 

(यह लेख 10 अक्तूबर, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में कुछ बदलावों के साथ प्रकाशित हुआ)